ईद मिलाद उन.नबी की मान्यता और इतिहास


  • ईद ए मिलाद.उन.नबी या 12 वफात पवित्र त्यौहार मनाने का मुख्य उद्देश्य क्या है आइए जिक्र करते हैं। ईद मिलाद उन नबी । 
  • इस साल 19 अक्टूबर यानी आज बरोज मंगलवार को मनाई जा रही है। 
  • इस त्यौहार को हर साल इस्लाम धर्म के आखिरी पैगम्बर हजरत मौहम्मद साहब के जन्मदिन के मौके पर मनाया जाता है। 
  • ईद मिलाद उन.नबी को ईद.ए.मिलाद के नाम से भी जाना जाता हैं।

  

New Delhi. Eid Milad Un Nabi 2021: इस्लामिक कैलेंडर के तीसरे महीने रबी उल अव्वल (Rabi Ul Awwal) की शुरुआत के साथ ही दुनिया भर के मुसलमान ईद मिलाद उन नबी यानी ईद-ए-मिलाद (Eid-e-Milad) या मावलिद (Mawlid) की तैयारियों में जुट जाते हैं मुस्लिम समुदाय के एक बड़े वर्ग का मानना है कि इस्लाम धर्म के अंतिम पैगंबर मोहम्मद (Prophet Mohammed) का जन्म 12वीं रबी उल अव्वल (Rabi Ul Awwal) को हुआ, इसलिए सूफी या बरेलवी विचारधारा का पालन करने वाले मुसलमान पैगंबर मोहम्मद के जन्मदिन को चिह्नित करने के लिए ईद मिलाद उन नबी का पालन करते हैं दुनिया भर के अधिकांश मुसलमान इस्लाम धर्म के पैगंबर मोहम्मद साहब (Islam's Prophet Mohammed) का जन्मदिन धूमधाम से मनाते हैं.  इस्लाम धर्म की मान्यता के अनुसार, पैंगबर मोहम्मद साहब (Prophet Muhammad) को खुद अल्लाह ने फरिश्ते जिब्रईल के जरिए कुरान का संदेश दिया था पैगंबर मोहम्मद के जन्मदिन समारोह को लेकर मुस्लिम समुदाय के कई अलग-अलग वर्गों का मानना है कि जन्मदिन समारोह का इस्लामी संस्कृति में कोई स्थान नहीं है, जबकि भारत में उनके जन्मदिन को मनाने की परंपरा का व्यापक रूप से पालन किया जाता है  ईद मिलाद उन नबी या मावलिद समारोह का इतिहास मुसलमानों की पीढ़ी के अनुयायियों के युग में वापस जाता है, जो पैगंबर मोहम्मद के साथियों का अनुसरण करते थे. उनमें से कुछ 12वीं रबी उल अव्वल पर पैगंबर मोहम्मद के जन्मदिन को चिह्नित करने के लिए कविता और गीतों का किया  पाठ जाता है, सदियों से यह प्रथा उत्सव के अवसर में बदल गई  ईद मिलाद उन नबी का महत्व इसलिए है, क्योंकि यह दिन पैगंबर मोहम्मद के जन्मदिन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, ईद मिलाद उन नबी 12वीं रबी उल अव्वल को मनाई जाती है ईद मिलाद उन नबी इस साल 19 अक्टूबर को आज मनाया जा हा है।  इस कार्यक्रम को अधिकांश मुस्लिम बहुल देशों में राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मान्यता प्राप्त है. भारत जैसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले कुछ गैर-मुस्लिम बहुसंख्यक देश भी इसे सार्वजनिक अवकाश के रूप में मान्यता देते हैं इस्लाम धर्म की मान्यताओं के अनुसार, 571 ई. में इस्लाम के तीसरे महीने यानी रबी उल अव्वल की 12वीं तारीख को पैगंबर मोहम्मद साहब का जन्म हुआ था वहीं कहा यह भी जाता है कि इसी रबी उल अव्वल की 12वीं तारीख को उनका इंतकाल भी हुआ था. मक्का में जन्में पैगंबर मोहम्मद साहब का पूरा नाम मोहम्मद इब्न अब्दुल्लाह इब्न अब्दुल मत्तलिब था, जबकि उनके पिता का नाम अब्दुल्लाह और मां का नाम बीबी अमिना था. सुन्नी मुस्लिम जहां ईद-ए-मिलाद का पर्व रबी के 12वें दिन मनाते हैं, वहीं शिया समाज के लोग इस पर्व को रबी के 17वें दिन मनाते हैं पैगंबर मोहम्मद साहब के जन्मदिन की खुशी व गम  में शिया  और सुन्नी दुनिया में इस्लाम के मानने वाले त्यौहार के रूप में मनाते हैं। मस्जिदों में जाकर नमाज अदा की जाती है और रात में मिलाद और नात शरीफ पढे जाते हैं और पैगंबर की पैदायश का ज्रिक किया जाता है। मन्नत इबादत करने वालों के लिए जन्नत के दरवाजे खुल जाते हैं। इस दिन जश्ने मिलाद यानी योगे पैदायश पर जुलूस-ए- मुहम्मदी निकाले जाते हैं। पैगंबर मोहम्मद द्वारा हजरत अली को अपना उत्तराधिकारी बनाया गया था 12 वफात या ईद ए मिलाद या मिलादुन्नबी के नाम से इस्लाम धर्म के प्रमुख पवित्र त्यौहारों में से एक है। बताया यह भी गया है कि हजरत मोहम्मद साहब हिरा नामक पर्वत पर एक रात जब गुफा में इबादत कर रहे थे पैगंबर की उम्र 40 वर्ष थी तो फरिश्ते जिब्राइल आए और उन्हें कुरान की शिक्षा दी आखिर कुरान धरती पर नाजिल हो गया। अल्लाह के इस कलाम यानी संदेश को मोहम्मद साहब ने दुनिया में फैलाया। पैगंबर का विश्वास था कि अल्लाह ने उन्हें अपना संदेशवाहक चुना है। बताया यह भी गया है कि करीब सन् 622 में मोहम्मद साहब को अपने अनुयायियों के साथ मक्का से मदीना के लिए कूच करना पडा और उनके इस सफर को हिजरत कहा गया, हिजरी कैलेंडर की नीव भी यहीं से रखी गई। पैगंबर मुहम्मद  साहब के मुरीद बड़ी संख्या में हो गए। उधर मक्का वालों को भी उनकी यह शिक्षाएं यानी अल्लाह का कलाम अच्छा लगने लगा। जब मक्का वालों ने अल्लाह के इस कलाम को जीवन मे ंउतारना शुरू कर दिया तो मोहम्मद साहब से पुनः मक्का आने का निवेदन किया। इस पर मक्का में स्थित काबा को इस्लाम का पवित्र स्थल घोषित कर दिया और काबा मस्जिद के इमाम की जिम्मेदारी संभाली तब तक पूरा अरब इस्लाम कबूल कर चुका था।

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